अब की नदियाँ ….

मान सरोवर किसने देखा ?
जिसने खीसे में गाँधी है ठूसा
मै तो जिसे देखता हूँ
वो मेरे शहर की गोमती है
जहाँ धोबी कपड़े धोता है
जहाँ लाशें बहती हैं…
मैने कभी उसमें कोई
कमल दल नही देखा
नौका सैर पे निकला था__
बीच धारे मरा कुत्ता बहता देखा
मैले कपड़ो की गट्ठर देखा
जलखुंभी का जमाव देखा…
जीवन अमृत वाली नदियां
किस युग में बहती थीं
मेरे समय वाली सरिता में
आती है दुर्गंध
लोग थूकते हैं बलगम
मल मूत्र का है समागम
गाय भैंसो के पिंजर…
काली पन्नियों में तैरते
कन्या भ्रूणों के लोथड़े
कल कल की ध्वनि से बहती
कल कारखानों की कालिख
तित्थियों के बांस
सड़ी गली
फूल माला बहती है…

पावन घाट है सीताकुण्ड
जिसके किनारे
उत्सर्जन का नर्क जमा है
मूर्तियां आलीशान खड़ी हैं
उनपे चिड़िया की गंद पड़ी है
राम घनुष लिए मुस्काते हैं
राम के पीछे लखन खड़े हैं
तनी भृकुटि मन मलिन है
उस युग से इस युग तक
सीता शीश नवाये खड़ी हैं
मन ही मन, अपने घाट की
स्तिथि पे कदाचित व्यथित हैं
साल के कुछ विशेष दिनों में
गोमती माता सी पूजी जाती है
शेष वर्ष वो बेचारी
नद नित उपेक्षित रहती है
समर दिवस के प्रहार से
नाले सी सिमट जाती है

बचपन में नाना,
आये दिन,, एक कविता सुनाया करते थे
“यह लघु सरिता का बहता जल
कितना शीतल कितना निर्मल”
होते जो आजभी नाना
मै उनको नई कविता सुनाता
“यह तनिक चौड़े नाले का जल
कितना विषैला, कितना काला
इसके तट पे दुर्गंध बसी
इसकी धारायें मैली मैली
वसुधा को भी दूषित करती
गंदगी ले बहती अविरल”

@JogiParinda #जोगीपरिन्दा

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